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यातना शिविर

से. रा. यात्री

प्रकाशक : सावित्री प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4890
आईएसबीएन :81-7902-050-9

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देश-समाज और परिवेश की समस्त त्रासदियों को मुखरित करता उपन्यास...

Yatana Shivir

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कथा साहित्य में बहुचर्चित नाम से.रा. यात्री का उपन्यास ‘यातना शिविर’ उन सभी त्रासदियों को मुखरता से व्यक्त करता है जो इस देश-समाज और परिवेश की नियति की तरह स्वीकार कर ली गई है। समाज में साधारण जन कितना उदासीन उपेक्षित और फालतू बन कर रह गया है यह इस उपन्यास की प्रत्येक पंक्ति में अंकित है। उसकी अस्मिता और इयत्ता को कौन लील गया है—यह एक विचारणीय मुद्दा है—और यही इस यातना शिविर का उपजीव्य है।
कथ्य और सघनता और संवेदना की निगूढ़ता पाठक को आत्मविस्तार और आत्मावलोकन के अनेक घनिष्ठ क्षण उपलब्ध कराने में पूर्ण समर्थ है। साथ ही उस नृशंस व्यवस्था का स्वरूप भी उजागर करती है जो सामान्यजन को यातना शिविर में छटपटाने के लिए विवश करती है।

1.

एक बार ऐसा होता है कि कोई आदमी हमारे बहुत निकट होता है और हम उससे मिलना टालते रहते हैं—यही सोचकर कि जल्दी क्या है—जब चाहे जाकर मिल लेंगे। या वही जब इच्छा होगी हमारे पास चला आएगा। मगर कभी-कभी यही स्थगन भारी चूक बन जाता है।
उनके मामले में भी कुछ वैसा ही हुआ। मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि वह यों एकाएक चुपचाप चले जाएँगे। वह गत बीस बरसों से मेरे साथ काम करते चले आ रहे थे। उम्र में मुझसे कोई दस-बारह या और भी कुछ अधिक बरस बड़े रहे होंगे। पर उम्र का यह अन्तर कभी खुलकर दृष्टि में नहीं आ पाता था। इसकी एक वजह तो शायद यही रही होगी कि वह कभी अपना बड़प्पन किसी पर थोपते नहीं थे। सभी से हमेशा दोस्ती और खुलेपन का व्यवहार करते थे।
मैं जब इस शहर में आया था तब तक उनकी नियुक्ति मेरे कॉलिज में नहीं हुई थी। वह तब कहीं दूर-दराज़ के किसी देहाती इलाके में थे। वहाँ शायद हेड मास्टर रहे होंगे क्योंकि वह ग्रेजुएशन के बाद अध्यापन के लिए ट्रेनिंग कर चुके थे। स्कूल में अध्यापक या मुख्य अध्यापक होने की एक यह भी अनिवार्य बन्दिश थी कि स्कूल में पढ़ाने वाला जे.टी.सी.एल.टी. अथवा बी.एड. हो। जहाँ तक मैं समझता हूँ वह एल.टी. रहे होंगे।
प्रबन्ध समिति में जैसा कि प्रायः होता है उस गँवई स्कूल में भी दो दल थे। वह इन दो दलों के खींच-तान से बहुत दुःखी रहते थे। चूँकि स्वभाव से वह भोले, साफ और एक चेहरे वाले व्यक्ति थे—इसलिए दो तरह की बातें करना या ठकुर-सुहाती उनके बस के बाहर की बात थी।

हो सकता है वह रोजी रोटी की सुरक्षा के लिए इस स्थिति में अपने आप को लम्बे समय में ढाल ही ले जाते मगर होते-होते संकट यहाँ तक आ पहुँचा कि उनकी तथा बाकी अध्यापकों की पगार भी कई-कई माह तक टलती चली गई। बस अच्छी बात यह थी उस देहाती स्कूल में कई साल काटने के दौरान उन्होंने प्राइवेट तौर पर एम.ए. कर लिया था। किसी भी कोण से बात बनती न देखकर आखिर उन्होंने स्कूल की हेडमास्टरी से इस्तीफा दे दिया।
एक सुबह वह हमसे यानी एक ही कॉलिज में पढ़ाने वाले कई प्राध्यापकों से मिलने आए। हम पाँच-छह अविवाहित लेक्चरर एक बड़ा मकान लेकर रहते थे। मात्र एक ही सज्जन विवाहित थे और हम सबसे कई साल बड़े थे। वही हमारे वरिष्ठ तथा अभिवावक जैसे थे। दरअसल वह उनसे ही मिलने आए थे। उन्हें किसी ने बतलाया था कि हमारे वरिष्ठ सहयोगी आत्मानन्द जी का मैनेजमेण्ट पर अच्छा प्रभाव है।
जब वह आए तो हम बाहर खुले बराण्डे में बैठे चाय पीते हुए मस्ती मार रहे थे। आत्मानन्द जी ने पड़ोस में रहने वाले एक विद्यार्थी को भेजकर जलेबियाँ और समोसे मँगवाए थे। वह हर रविवार की छुट्टी में, बाजार से सुबह के नाश्ते पर मिठाई वगैरह जरूर मँगवाते थे।
किसी को कहीं जाना नहीं था। चेमेगोइयाँ चल रही थीं। और मेन गेट खुला पड़ा था। इसी समय एक व्यक्ति दहलीज के उस तरफ, ठिठका सा खड़ा दिखाई दिया। पहली नज़र में सिवाय इसके कोई उम्रदराज शख्स उधर खड़ा है—उम्र का अनुमान लगाना सम्भव नहीं था।

हम लोग सभी—आत्मानन्द जी को छोड़ कर तेईस से छब्बीस की आयु सीमा के नवयुवक थे। और चालीस छूता कोई भी आदमी हमें बुजुर्ग लगता था। फिर जो आदमी दहलीज पर ठिठका खड़ा था उसका हुलिया भी अजीब था। ढीली-ढीली खाकी जीन की पतलून, बन्द-गले का मुचड़ा-मैला सा कोट ! कई दिन की बढ़ी दाढ़ी और बुझी-बुझी सी आँखें। काले से अनगढ़ बूटों पर बेपनाह गर्त चढ़ी हुई थी। कुल मिलाकर वह आदमी निराशा की मूर्तिमन्त स्वरूप दिखाई पड़ता था।
कनपटियों के सफेद बालों को उँगलियों से मसलते हुए उसने हम लोगों की ओर आँखें उठाकर देखा। यह क्रिया भी उसकी हताशा प्रकट करने वाली ही थी।
चूँकि हम सभी अलग-अलग स्थानों के रहने वाले थे। यह महज एक संयोग ही था कि हम एक ही स्थान पर इकट्ठा रह रहे थे। इसलिए हममें से प्रत्येक ने यही सोचा कि हममें से किसी का भाई बन्द या पड़ोसी मिलने आया होगा और अपने परिचित को पहचानने की कोशिश कर रहा होगा।
सहसा हम सबकी बातें बन्द हो गईं और उसकी ओर ही देखने लगे। उम्र के प्रति हम सब में बड़ा गहरा आदर भाव था। इसलिए उसके आगे बढ़ने से पहले ही अपनी-अपनी कुर्सियाँ छोड़कर खड़े हो गए।
आत्मानन्द जी ने गेट की ओर बढ़ते हुए कहा ‘‘आइए।’’
वह शख्स झिझकते हुए आगे बढ़ा और मरी सी मुस्कान के बीच बोला, ‘‘मैंने आप सज्जनों की गोष्ठी डिस्टर्ब कर दी।’’
आत्मानन्द जी ने जैसे उसे समय देते हुए कहा, ‘‘आइए-आइए। वैसी तो कोई बात नहीं है। आप भी हमारी चाय (चाय पीने की इच्छा) में खुशी से शामिल हो जाइए। चाय के दौर तो इतवार को ही चल पाते हैं। हमारी खुशकिस्मती है कि आज एक सज्जन पुरुष भी आ निकले।’’

उम्र में लाल हम सबमें छोटे थे और कद में भी नाटे थे। उन्होंने अपनी कुर्सी आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘प्लीज बी सीटेड।’’
वह सकुचाते हुए बोले, ‘‘अरे अरे आप क्या कर रहे हैं। आप अपनी कुर्सी पर बैठिए—मैं तो कहीं भी बैठ जाऊँगा।’’
आत्मानन्द जी मुझसे बोले, ‘‘विद्या जी आप आज चाय बनाने का कौशल तो दिखाइए। अब तो दूसरे दौर का भी वक्त आ गया—रमेश जलेबी-समोसे लेकर आता है होगा।’’
मैं समझ गया कि आत्मानन्द जी यह चाहते हैं कि हम सब अपनी-अपनी चाय पीते न बैठे रहें क्योंकि उस शख्स के प्रति यह अवमानना होती। हम सब लोगों के हाथों में तो चाय के प्याले उस समय भी थे ही।
चाय बनाने के लिए मैं उठकर जाने लगा तो मैंने नवागन्तुक को कहते सुना ‘‘मैं धौलाना के एक हाईस्कूल में हाल फिलहाल तक हेडमास्टर था। अभी हफ्ते भर पहले मैंने ‘रिजाइन’ कर दिया है। पर परिवार अभी गाँव में ही है। मेरा नाम वीरेन्द्र कौशिक है।’’
आत्मानन्द जी उस व्यक्ति की स्थिति तुरन्त समझ गए। हमारे कॉलिज में हिन्दी विभाग में एक लेक्चरर का स्थान अभी तक खाली था और उपयुक्त व्यक्ति की तलाश थी। हो न हो इस बेचारे ने कहीं से जान लिया होगा कि अमुक कॉलिज में एक अध्यापक की नियुक्ति होनी है सो यह हिन्दी के वरिष्ठ व्याख्याता आत्मानन्द जी से मिलने और अपनी नियुक्ति की संस्तुति कराने आ पहुँचा है
आत्मानन्द जी बहुत ही सरल, सहृदय और पर दुःख कातर व्यक्ति थे। इसलिए बिना किसी दुराव-छिपाव के बोले, ‘‘हाँ, आप उपयुक्त, अवसर पर आए हैं। हमारे कॉलिज में हिन्दी विभाग के अन्तर्गत अभी एक प्रध्यापक का स्थान रिक्त है। आप यथा शीघ्र प्राचार्य और व्यवस्थापक जी से मिल लीजिए। प्रबन्ध समिति में यहाँ एक वकील अंसारी साहब हैं जो स्वयं ला कॉलिज में प्रोफेसर हैं। बड़े खुले विचारों के उदार सज्जन हैं, आप आज ही उनसे मिल लें तो अच्छा है। आप जानते ही होंगे अब छोटे-से-छोटे पद के लिए भी सिफारिशों का अम्बार लगा रहता है।

वह व्यक्ति बुरी तरह से टूट चुका था और निराशा के इतने गहरे गर्त में जा गिरा था कि उसे कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी उदासी के स्वर में बोला, मैं एम.एल.टी. तो जरूर हूँ पर मेरी मुश्किल यह है कि एक तो मैंने प्राइवेट तौर पर एम.ए. किया है। दूसरे मेरी कोई सिफारिश करने वाला भी नहीं है।’’
आत्मानन्द जी ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘आप उस सबको लेकर अधिक परेशान न हों। प्राचार्य और मैनेजर दोनों ही बहुत कंसीडेरेट हैं। और वह विभाग में एक अच्छा अध्यापक चाहते हैं।’’
वह थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर बोला, ‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है तब तो मुझे पूरी तरह निराश नहीं होना चाहिए।’’
आत्मानन्द जी बोले, ‘‘बिल्कुल निराश न हों। दरअसल इसी वर्ष इण्टर कॉलिज, यूनिवर्सिटी के कॉलिज से अलग होकर अलग भवन में शिफ्ट हुआ है। और, पोस्ट ग्रेजुएट कॉलिज में स्थापित प्रोफेसर अब इण्टर में नहीं पढ़ाएँगे इसलिए हमारे इण्टर सेक्शन में पूरी तरह से ‘फुल फ्लेज्ड’ टीचर्स की नियुक्ति चल रही है ! अभी सभी विभागों में अध्यापक लिए जा रहे हैं आपका अप्वाइण्टमेंण्ट बिल्कुल मुश्किल नहीं है। सत्र आरम्भ हुए भी दो महीने हो रहे हैं। मैं प्राचार्य से रोज कहता हूँ कि हमारे विभाग में एक लेक्चरर की नियुक्ति तत्काल होनी चाहिए। आप जल्दी ही प्राचार्य जी से मिल लेंगे तो आपको वह तुरंत रख लेंगे। फिर आपके साथ एक ‘प्लस’ यह भी है कि आप ट्रेण्ट टीचर हैं—हेडमास्टर भी रह चुके हैं। दसवीं कक्षा में भी पढ़ाने के लिए उपयुक्त अध्यापक हैं। ऐसा योग्य व्यक्ति उन्हें और कहाँ मिलेगा !’’
आत्मानन्द जी के परम आश्वस्तकारी प्रवचन से वह उदास और टूटा-बिखरा आदमी थोड़ा सुचित दिखाई पड़ने लगा। उसकी बातें सुनने के क्रम में मैं यह बात एकदम विस्मृत कर बैठा था कि आत्मानन्द जी ने मुझसे चाय बनाने को कहा था। जब मैं किचेन में स्टोव जलाकार चाय का भगोना स्टोव पर टिका रहा था तो मेरे ही विभाग के मोहन लाल जी मेरे पास आकर खड़े हो गए और बोले, यार विद्यासागर—ये साहब जो आत्मा जी से बातें कर रहे हैं, वाकई बड़े दुःखी जीव मालूम होते हैं। जो भी हो इस गरीब को नौकरी तो जरूर मिलनी चाहिए। मैं तो सोच भी नहीं सकता कि इतनी उम्र को पहुँचा हुआ आदमी किसी तरह बे ठिकाना और ‘‘जॉब लेस’’ है। बेचारे के तीन बच्चे हैं। परिवार के पाँच प्राणियों का भविष्य तो क्या टूटा-फूटा वर्तमान भी कहीं नजर नहीं आता। उसकी दुःख भरी बातें सुन-सुनकर मुझे तो बड़ा वैसा लग रहा है।’’
स्टोव की भर्र-भर्र के बीच मैं बोला, ‘‘एकदम ठीक बात कहते हैं। दिल दहलाने वाली परिस्थिति है पर आत्मानन्द जी को भी किसी बजरंगबली से कम मत समझो देख लेना इस गरीब के लिए अब वह कुछ-कुछ करके ही दम लेंगे। मेरा ख्याल तो यह है कि इन साहब को अभी प्राचार्य महोदय, चौधरी साहब के यहाँ लेकर जाएँगे।’’

चाय बन गई तो मैंने चाय की भरी केतली उठाई और मोहनलाल ने आलमारी से प्याले निकाले।
जब हमने मेज पर चाय और प्याले रखे तभी हमारा विद्यार्थी रमेश पोतदार बाजार से जलेबी और समोसे लेकर आ गया, उसने सारा सामान मेज पर टिकाया और रसोईं से प्लेटें लेने चला गया।
नवागंतुक कौशिक जी बोले, ‘‘प्रायः सभी सज्जनों ने मेरी खातिर बहुत तवातल उठाई।’’
आदमी मुसीबत में होता है तो बहुत कोमल, द्रवित और थरथराया हुआ होता है। वैसी स्थिति में उसे थोड़ी सी भी सहानुभूति अथवा सम्मान देने वाला भगवान दिखाई पड़ता है। दो मीठे बोल उसके लिए संजीवनी के समान हो उठते हैं।
आत्मानन्दजी ने रमेश की लाई हुई प्लेटों में जलेबियाँ और समोसे उड़ेलते हुए मीठे स्वर में कहा—काहे की तवालत उठाई हमने ? अरे, कौशिक जी आपके आगमन के तुफैल में तो हमें मिठाई खाने को मिल रही है। यह बडा भारी शुभ-शकुन है। मुझे पूरी आशा है कि हमारे विभाग में आप यथाशीघ्र हमारे सहयोगी होने जा रहे हैं।’’
आत्मानन्द जी के आश्वासन से उस उम्रदराज आदमी को आँखें भींग उठी और वह अपने आँशू छिपाते हुए कुर्सी से उठकर बोला, ‘‘आपका बाथरूम किधर है मैं जरा हाथ-मुँह ही धो डालूँ।’’
कौशिक जी ने हाथ-मुँह धोने के बाद अपनी पतलून की जेब से एक मुचड़े हुए गेंद बने रुमाल को निकाला और कसकर मुँह-हाथ पोंछना शुरू कर दिया।
जब वह हम लोगों के सामने कुर्सी पर आकर बैठ गए तो मैंने उड़ती-सी नज़र उनके चेहरे पर डाली गोल चेहरे पर छोटी-छोटी आँखें और फैले हुए चौड़े नथुने उन्हें एक देहाती का स्वरूप प्रदान करने लगते थे। हाँ, उस व्यक्ति का ललाट इतना प्रशस्त था कि लगता था कि वह गहरी और गंभीर सोंच वाला व्यक्ति है। उसके व्यक्तित्व में किसी प्रकार की चालाकी अथवा कुटिलता का तो लेश भी नहीं होगा। वह एक सीधा-सादा भोला व्यक्ति था।
चाय पीते हुए इधर-उधर की चर्चा चल निकली फिर वह मुसकराकर बोला, ‘‘मुझे तो आपका निवास एक ‘वैचलर्स एसाइलम’ लगता है। उनकी बात सुनकर आत्मानन्द जी जोर से हँस पड़े तो उसने चौंकते हुए पूछा, क्या मैं कोई अनुचित बात कह बैठा भाई साइब।’’

‘‘नहीं नहीं आपने कोई अनुचित बात नहीं कही है। दरअसल खुद ‘बैचलर्स एसाइलम’ सुन कर हँसी आ गई। क्या किया जा सकता है यह अंग्रेजी भाषा की दरिद्रता ही कही जाएगी कि जिसमें एसाइलम’ का अर्थ आश्रय ‘शरण स्थल भी है तो साथ ही उसका उसका आशय पागलखाने से भी है।
यह सुनकर कौशिक जी भी हँस पड़े और बोले, ‘‘आप एकदम सही बात कहते हैं। दरअसल अंग्रेजी भाषा में पर्यायवाचियों का तो जैसे घोर दुष्काल उपस्थित है। यह तो एक ऐसी भाषा है जिसे आप अनुवाद की भाषा कह सकते हैं। अब देखिए रूसी, फ्रेंच, जर्मन, जेपेनीज, संस्कृत आदि भाषाओं की समानता के सामने यह घोर दरिद्र अंग्रेजी कहाँ ठहरती है ? मगर दुनिया की सभी श्रेष्ठ कृतियों के कई-कई अनुवाद आप को इस भाषा में मिल जाएंगे—भले ही उसे एक शब्द, के कई अर्थ निकालने पड़ें। अंग्रेजी में ‘वेल’ ‘अच्छा’ , ‘ठीक’ के लिए भी प्रयुक्त होता है तो ‘कुएँ’ के अर्थ में भी। पर अपनी हिन्दी को भी देखिए एक-एक शब्द के दस-बीस पर्यावाची तो जरूर मिल जाएँगे।’’
अंग्रेजी के प्रवक्ता लाल ने कौशिक जी की बातों में बाधा दी, ‘‘आप कुछ भी कहें जनाब मगर यह तथ्य नहीं झुठला सकते कि अंग्रेजी के समान ग्लोबल (वैश्विक) लैंग्वेज संसार की और कोई भाषा नहीं है। और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आपकी हिन्दी-विन्दी तो कभी ‘ग्लोबल’ होने का सपना भी नहीं देख सकती।’’
कौशिक जी बोले, ‘‘आप ठीक कहते हैं। हमारे खून में जो गुलामी की गहरी जड़ें जमी हैं वह हमें भूल कर भी वैसा सपना देखने की इजाजत नहीं देंगी। ‘पूँजीवादी साम्राज्यवादी’ प्रवृत्तियों ने हमारी उपनिवेशवादी मानसिकता को अंगद का पाँव बनाकर रख दिया है।’’
आत्मानन्दजी ने हँसते हुए कहा, ‘‘अरे आप लोग किस चक्रव्यूह में जा फँसे ? इस गुफा का अन्त नहीं है इसलिए कृपा करके चाय और जलेबियाँ ठंडी मत कीजिए। भाषा का जो होता है होने दीजिए, पहले सामने रखे नाश्ते के साथ भरपूर-न्याय कीजिए।’’
चाय पीते-पीते आत्मानन्द जी ने कौशिक जी को बतलाया, ‘‘जैसा कि आपने कहा—ऊपर की मंजिल के ‘पागलखाने’ में हम पाँच रहते हैं। हालाँकि मैं तो अब किसी अर्थ में ‘बैचलर’ नहीं रह गया हूँ पर बाकी के चार बछेड़ों में सींग कटाकर पूरी तरह शामिल हूँ। कुँवारों में जो गदहा पचीसी होती है। उसका यहाँ आपको अभाव नहीं खलेगा। हमारे एक सहयोगी तो हाल कमरे में अंग्रेजी संगीत का कैसेट बजाकर उसकी धुन पर बाकायदा घण्टों थिरकते हैं। यह मज़े आपको और कहीं नहीं मिलेंगे। आपकी जब हमारे कॉलेज में नियुक्ति हो जाएगी तो कुछ दिनों तक हमारे साथ ही रहिएगा—आपको अपने कौमार्य के दिनों की स्मृति ताजा हो जाएगी।’’

कौशिक जी के चाहरे पर बहुत देर बाद सहजता लौटी और वह आत्मानन्दजी के बार-बार आश्वासन देने पर भीतर से परम आश्वस्त दिखाई पड़ने लगे। उन्होंने आत्मानन्द जी से परिहास में पूछा, ‘‘तो आपकी कैफियत बाकी सबसे जरा अलग है। आपका विवाह हुए क्या काफी समय हो गया ?’’
आत्मानन्द जी बोले, ‘‘जी हाँ, यह दुर्घटना लगभग दस बारह वर्ष पहले ही घटित हो चुकी थी। अब तो जहाज लंगर छोड़कर मझधार में पहुँचा गया समझिए।’’
‘‘अरे अरे ! वैवाहिक जीवन को आप यह ’दुर्घटना’ जैसी संज्ञा क्यों दे रहे हैं भाई ! आपके इस कथन का इन कुमारों पर क्या घतक प्रभाव पड़ेगा, जरा यह भी तो सोचिए।’’
‘‘इन लोगों पर मेरी संज्ञा अथवा मूर्च्छना का अब कोई घातक प्रभाव पड़ने वाला नहीं, इनमें से तीन तो आलरेडी बुक हो चुके हैं।’’ फिर आत्मानन्द जी ने रसायन शास्त्र के अग्रवाल की ओर संकेत करके कहा, ‘‘यह साहब अभी काफी बिदके हुए हैं। किसी बेटी के बाप को पुट्ठों पर हाथ नहीं रखने दे रहे हैं। मगर देर-सबेर फँसेंगे यह भी। बकरे की माँ अनन्त काल तक खैर नहीं मना सकती।’’
‘‘आप गृहस्थ होते हुए भी अब तक परिवार विहीन स्थिति कैसे बरकरार बनाए हुए हैं ?’’
आत्मानन्द जी ने कौशिक जो को बतलाया, ‘‘उसकी भी व्यथा पूर्ण अन्तर्कथा है भाई साहब। मैं अब तक चार कॉलिजों में नौकरी कर चुका हूँ। इसके अलावा मैं संयुक्त परिवारी हूँ। वृद्ध माता-पिता जीवित हैं उन्हें अकेले छोड़कर बच्चों को अपनेपास रखना मेरे संस्कार में नहीं है। इस पकी आयु में माता जी और पिताश्री अपना कस्वा और पास-पड़ोस छोड़कर किसी अनजाने शहर में सुचित होकर रह नहीं सकते।’’
‘‘परम्परागत परिवारों की यह रवायत (परम्परा) तो मैं जानता हूँ। पुराने लोग अपना गाँव देहात कस्बा-क्या अपना पुतैनी या पुराना मकान तक भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। उनके लिए आवास महज एक निर्जीव बसेरा नहीं है वहाँ की ईंटें, दीवारें और मिट्टी भी अपने साथ संवाद स्थापित करती प्रतीत होती है।’’
कौशिक जी की बात पर आत्मानन्द जी ने हामी भरकर कहा, ‘‘जी हाँ, उन पुराने लोगों की यही स्थिति है। मगर अब यह परम्परा ज्यादा देर चल नहीं पाएगी। लम्बे-चौड़े संयुक्त परिवार तो अब टूट बिखर ही गए हैं। दरअसल साझेपन की संवेदना ही मर गई है।’’

कौशिक जी ने आह सी भरते हुए अपना दर्द कहा, ‘‘पुराने वक्तों की बात होती तो मुझे अपनी नौकरी छूट जाने पर इतने असुरक्षित होने का कतई अहसास नहीं होता। मैं भी अपने गत बीस वर्षों से अपने संयुक्त परिवार से कटा हुआ हूँ। बदायूँ यों तो जिला है मगर आज भी कस्बा सरीखा ही है। वहाँ पुश्तैनी मकान में बूढ़े माँ-बाप रहते हैं। वह लोग तो मेरे वहाँ लौटने की उम्मीद ही कब से छोड़ चुके होंगे। वहाँ आज भी बहुत सस्ते में गुजर-बसर हो सकती है। मगर अब वहाँ लौट जाना तो किसी भी तरह संभव दिखाई नहीं पड़ता, यह लगभग वैसा ही समझिए जैसे प्राण एक बार छूट जाने के बाद उसी देह में कभी वापस नहीं लौट सकते।’’
फिर एक क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘‘चलो किसी चमत्कार से देह से छूटे प्राण उसी देह में लौट भी जाएँ पर ऐसे पुनर्जीवन का कौन स्वागत करता है। भूत हो गई विभूति का ‘पुनरोदय’ भी कहाँ संभव होता है ?’’
मैं उन सज्जन की बात सुनकर स्तब्ध रह गया। वाकई वह गहन गंभीर सोच वाले जीव थे। देह के प्राण से वियुक्त होने का क्या गजब का तथा पुराना घरबार नगर छूट जाने का सादृश्य उपस्थित किया था।
आत्मानन्द जी ने उन्हें विचलित देखकर दिलासा दी, ‘‘उसकी बात अब न सोचिए। ‘बीती ताहि बिसार दें’।’ वाली उक्ति ही चरितार्थ कीजिए, आप चाहें भी तो कैसे पुराने जीवन में लौट सकते हैं। बच्चों का संस्कार बदल चुका है। वह अभी छोटे हैं मगर सुविधा की जगह रहने की आकांक्षा में जीते हैं। यहाँ आकर रहेंगे तो उन्हें नया जीवन-नया वातावरण देखने को मिलेगा।’’
कौशिक जी ने लम्बी साँस खींचकर कहा, ‘‘देखिए क्या नियति है। जो भाग्य में होगा वही देखना पड़ेगा।’’
‘‘आप चिन्ता न करें। भाग्य में सब अच्छा ही लिखा है। प्रायः निश्चिन्त होकर नाश्ता कीजिए। मैं अभी साथ के साथ आपको प्राचार्य महोदय से मिलवाए देता हूँ।’’ फिर मेरी ओर नज़र फेरकर आत्मानन्द जी बोले, ‘‘विद्याजी देखिए कुछ मीठे-नमकीन बिस्कुट पड़े हों तो।’’
मेज से चाय का प्याला उठाते हुए कौशिक जी ने पूछा, ‘‘अब बिस्कुट का क्या होगा ? ये चाय के साथ क्या कुछ कम लवाजयात पड़े हैं सामने ?’’
आत्मानन्द जी हँस कर बोले, ‘‘मैंने वैसे ही आदत के वशीभूत होकर कह दिया-बाकी यहाँ यह चीजें होंगी थोड़े ही ? घर में बाल-गोपालों का साम्राज्य है, इसलिए कुछ भी बचाकर अथवा सहेजकर रखने में इनकी आस्था नहीं है।’’
हम लोगों पर किए गए कटाक्ष को लक्ष्य करके कौशिक जी हँसते हुए बोले, ‘‘हाँ, यह लोग अभी हैं तो निरे बच्चे ही। यह दीगर बात है कि एम.ए. वगैरह करके रोजगार में लग गए हैं। हमारी उम्र तक पहुँचते-पहुँचते तो इन लोगों को अच्छी मोटी तनख्वाहें मिलने लगेंगी।’’

आत्मानन्द जी ने कहा, ‘‘और क्या। यह तो होगा ही। जो लोग अर्ली स्टार्ट ले लेते हैं, लाभ तो उन्हीं को ज्यादा होता है। इन बच्चों की और मेरी तनख्वाह में एक नए पैसे का फर्क नहीं है। जबकि मैं इन सबसे बरसों पहले रिटायर कर जाऊँगा।’’
‘‘यह तो होता है नए लोगों को भी लाभ अधिक मिलता है।’’ अपनी बात कहकर कौशिक जी ने चाय का खाली प्याला मेज पर रख दिया।
आत्मानन्दजी बराण्डे से उठकर कमरे की ओर जाते-जाते बोले, ‘‘कौशिक जी मैं अभी आता हूँ, कपड़े बदलकर।’’
बदन पर धोती कुरता और पावों में चप्पलें डालकर आत्मानन्द जी जल्दी ही बाहर निकल आए और वीरेन्द्र कौशिक से बोले, ‘‘अच्छा कौशिक जी, आइए अब चलें। प्राचार्य महोदय अभी घर पर ही होंगे। मैं आज और अभी आपको उनसे मिलवा देता हूँ। ‘शुभस्य शीघ्रं’ वाली बात ही उत्तम है।’
वीरेन्द्र कौशिक कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए और बोले, ‘‘अब तो आप ही मेरे त्राता हैं। जो उचित समझें करें।
‘‘मैं कोई त्राता-व्राता नहीं हूँ। आप हमारे बड़े भाई हैं। यह सब सुखद संयोग की बात है। आइए चलिए।’’
कौशिक जी द्रवित होकर कहने लगे, ‘‘भाई साहब दुनिया में अभी आप जैसे उदार चरित्र और महान व्यक्ति मौजूद हैं। मानवता अभी शेष है। आपके व्यवहार से मुझे जबरदस्त मनोबल प्राप्त हुआ है। वह गुप्त जी की पंक्ति बार-बार याद आ रही हैं—‘‘सहानुभूति चाहिए महाविभूति है यही।’ होगा, वही जो राम रचि राखा’ पर मनुष्य के रूप में मुझे आप सब भगवान स्वरूप ही मिले हैं।’’
जब वह आत्मानन्द जी के साथ जाने लगे तो हम सबकी ओर हाथ जोड़कर बोले, ‘‘भाइयों, आज का शुभ दिन मेरे लिए बड़ा पुण्यदाई है। पता नहीं किन महान कार्यों के बदले आज आप सबके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।’’
सहसा आत्मानन्द जी को कोई भूली बात याद आ गई। वह बोले, ‘‘कौशिक जी आपने हमारा ‘एसाइलम’ के भीतर प्रवेश करके तो देखा ही नहीं। परिवार विहीन छड़े छाँटे कैसे रहते हैं, इसकी भी तो एक झलक लेते जाइए।’’
कौशिक जी हँसते हुए बोले, ‘‘अगर नो एडमिशन’ अथवा ‘प्रवेश निषेध’ की कोई तख्ती आपने यहाँ नहीं टाँग रखी है तो मैं आप सबका सर्वोपम आवास अवश्य देखना चाहूँगा।’’
‘‘नहीं-नहीं, वैसे कुछ नहीं है।’’ आत्मानन्द जी कमरे में घुसते हुए बोले, ‘‘तो आइए, इस बड़े हाल कमरे से ही शुरू करते हैं।’’
वीरेन्द्र कौशिक उनके पीछे-पीछे बड़े कमरे में दाखिल होने से पहले अपने जूते उतारने लगे तो मैं बोला, ‘‘आप जूते पहने रहिए। यहाँ हम सब लोग जूते-चप्पल पहने-पहने ही सारे कमरों में घूमते-फिरते हैं।’’
इस पर प्रवक्ता लाल ने टीप लगाई, ‘‘और अग्रवाल महाशय तो आत्मानन्द जी के लाख बरजने पर भी रसोई में जूते-पहने-पहने ही घुस जाते हैं।’’
इस पर कौशिक जी बरबस हँस पड़े तब तक वह दहलीज के बाहर ही अपने जूते उतार चुके थे और नंगे पाँव ही कमरे में दाखिल हो रहे थे।

बड़ा कमरा जिसे हम ‘हाल’ कहते थे। उसमें मोयजिक का फर्श था। दीवार में लकड़ी की गहरी अलमारियाँ थीं। बाहर सड़क की ओर खुलने वाली खिड़कियाँ पूरी दीवार में जड़ी हुई थीं। हाल में एक लम्बा-चौड़ा तख्त और चार-पाँच कुर्सियाँ थीं। दीवार के सहारे पड़े तख्त के अलावा वहाँ तब कोई सामान नहीं था। कुर्सियाँ और मेज बराण्डे में पड़ी हुई थीं। जिन पर हम लोग बैठकर अभी तक नाश्ता कर रहे थे।
इतने बड़े कमरे को खाली देखकर कौशिक जी बोले, ‘‘वाकई यह, ‘‘बैचलर्स एपार्टमेण्ट की ही संज्ञा पाने योग्य हैं क्योंकि यदि इसमें विवाहित लोग रहते होते तो ससुराल से मिले दो तीन जोड़ी सोफा सेट और गोल मेजें यहाँ जरूर शोभायमान होती दिखतीं।’’
उनकी बात पर आत्मानन्द जी हँस पड़े और बोले, ‘‘आती जनवरी में जिन साहब का विवाह होने जा रहा है उन्होंने विवाहित होने के बाद इसी ‘कुमारालय’ को ताजीह दी तो आप देखेंगे कि यह प्रभाव पूरा हो चुका है।
मैं बोला, ‘‘मगर तब यह आपके कथनानुसार ‘कुमारालय’ कहाँ रह पाएगा।’’
अग्रवाल ने कहा, ‘‘मेजॉरिटी तबतक बैचलर्स की बनी रहेगी तब तक तो इसे ‘बैचलर्स विला’ ही माना जाएगा।’’
कौशिक जी पूरा कमरे का चक्कर लगाकर बड़े प्रसन्न हुए और बोले ‘यह आपका ‘कम्युनिटी हाल’ है। जहाँ चार छह छड़े छाँटे रहते हो वहाँ इस तरह के कॉन्फ्रेन्स हाल की वाकई बड़ी उपयोगिता होती है। मैं समझता हूँ, इस मकान को बनवाने वाला मकान मालिक बड़ा समझदार है।’’
आत्मानन्द जी बोले, ‘‘समझदार से भी ज्यादा समझदार कहिए। अब तो ऐसा लगता है इस मकान का नक्शा बनवाते समय ही हम लोगों की रिहायश का मकान का इलहाम हो गया था।’’
कौशिक जी बोले, ‘‘तो आपकी महासभा अथवा सभापर्व यही सम्पन्नता को प्राप्त होते हैं।’’
आत्मानन्द जी बोले, ‘‘आप एकदम ठीक समझे। रात को जब यहाँ सभा जुटती है तो अग्रवाल जी सहगल के गाने गाते हैं और वर्मा जी ‘राक एंडराल’ का रिहर्सल करते हैं।’’
कौशिक जी ने पूछा, ‘‘और आपका क्या शगल रहता है ?’’
मैं बोला, ‘‘हमारे श्रद्धास्पद एक सौ आठ श्री आत्मानन्द जी महाराज प्रच्छन कवि हैं पर अपनी कविता सुनाने के बजाय सेना पति रहीम घनानन्द आदि की दुन्दुभी बजाते हैं।’’
‘‘कालयापन का बड़ा सुन्दर कार्यक्रम है आप सभी सज्जनों का। इतने कालविदों को कुछ सारग्राही श्रोताओं की भी आवश्यकता रहती ही होगी। दैव योग्य से मेरा भाग्य मुझे यहाँ तक खींच ला सका तो श्रोता के रूप में मैं अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज कराता रहूँगा।’’
हममें से दो-तीन के होठों से एक ही बात निकली, ‘‘जरूर-जरूर।’’

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